हर साल इंदौरी गेर को यूनेस्को की सूची में शामिल करवाने की मांग गूंजती है। बयानबाजी होती है, दावे किए जाते हैं, लेकिन जब हकीकत की परतें खुलती हैं, तो असलियत कुछ और ही नजर आती है। केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय के अपर सचिव मोनिका राय की बातों ने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है—जो परंपरा 75 वर्षों से लगातार जारी है, उसे अब तक राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्यता क्यों नहीं मिल सकी?
विधिक आवाज समाचार | इंदौर |19 मार्च 2025
विश्वामित्र अग्निहोत्री सह संपादक
बयानबाजी बनाम हकीकत
हर साल गेर को यूनेस्को की सूची में शामिल करवाने का दावा करने वाले नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों से यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या उन्होंने इस दिशा में कोई ठोस पहल की? हकीकत यह है कि इंदौरी गेर अभी तक "नेशनल इन्वेंट्री" यानी राष्ट्रीय धरोहर की सूची में भी शामिल नहीं है। यदि उसे यूनेस्को तक पहुंचाना है, तो पहले राष्ट्रीय धरोहर की मान्यता दिलवानी होगी। लेकिन, इस बुनियादी तथ्य से बेखबर हमारे जिम्मेदार नेता सिर्फ घोषणाओं और बयानबाजी तक सीमित रह जाते हैं।
परंपरा को पहचान क्यों नहीं?
इंदौरी गेर केवल होली के दिन सड़कों पर निकलने वाली कोई शोभायात्रा नहीं, बल्कि संस्कृति, परंपरा और सामाजिक एकता का प्रतीक है। यह अपने आप में विश्व की सबसे बड़ी होली गेरों में से एक है, जिसे देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं। बावजूद इसके, इसे अभी तक राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा नहीं दिलवाया जा सका।
जिम्मेदारों की सुस्ती या उदासीनता?
यह सवाल महत्वपूर्ण है कि आखिर इतने वर्षों में इंदौरी गेर को राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा दिलाने के लिए कोई ठोस प्रयास क्यों नहीं किया गया? क्या यह प्रशासनिक उदासीनता है, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, या सिर्फ चुनावी लाभ के लिए किए जाने वाले खोखले वादे? यदि वास्तव में इंदौर की इस ऐतिहासिक परंपरा को वैश्विक पहचान दिलानी है, तो सबसे पहले इसे राष्ट्रीय धरोहर के रूप में मान्यता दिलानी होगी।
अब जागे तो सही!
अब जब यह तथ्य सामने आ चुका है, तो इंदौर के नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इस दिशा में ठोस कदम उठाएं। बयानबाजी और खोखले दावों से कुछ नहीं होगा, बल्कि दस्तावेजी प्रक्रिया को तेज करना होगा, संस्कृति मंत्रालय से संपर्क बढ़ाना होगा और इस धरोहर को उसके सही मुकाम तक पहुंचाने के लिए सक्रिय प्रयास करने होंगे।
इंदौरी गेर को यूनेस्को में शामिल करवाने का सपना तभी साकार होगा, जब इसे पहले अपने देश में ही उचित मान्यता मिलेगी। अब वक्त है कि हम सिर्फ ढिंढोरा पीटने के बजाय हकीकत में इसे संजोने और संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाएं। वरना, अगले साल भी यही राग अलापा जाएगा, और गेर अपनी पहचान के लिए संघर्ष करती ही रह जाएगी।
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